रात कहाँ से तू आती है
घूँघट में लाती सैकड़ों तारों को
चाँद भी आता पीछे पीछे!
आसमान को बहलाकर
फिर जातें भी तो कहाँ!
पहाड़ के पीछे क्या राज है? चाँद!
वही जाकर छुप जाते हो
देखो आड़ लहराती फैलाती
रात पहुँच गई तुझ तक
और फिर दोनों गए कहाँ!
हीरों की तरह झिलमिलाते
कोने कोने तक पहुँच तो गए
सुंदर समा चमकती कुछ देर
माया से मिथ्या बनाकर
फिर सब चलते कहाँ!
रात कहाँ से तू आती है
क्या घटा के पीछे छुपी थी
न पाती हूँ तेरा पता और
न ही छोड़ती तुम कोई निशान
परी की तरह चमकती हो
और यूँ ही अदृश्य हो जाती हो!
झाँककर देखता हूँ हर जगह
तारों का नूर सिर्फ़ नज़र आता
छा जाती हो दूर दूर तक
चाँद को लेकर सरकती रहती
देखते ही देखते खो जाती
फिर आसमान में प्रकट हो जाती!
काला घूँघट तुम पहनती
मणिकाओं को लपेटती
रहा नहीं जाता चाँद को भी
प्रत्यक्ष होता कभी छोटा कभी बड़ा
चमकते है सुबह तक
और फिर न जाने कहाँ जाते?
समुंदर के ऊपर से निकलती
समय पर ठीक पहुँचती
संध्याकाल से प्रातःकाल तक
अपने रंग से गगन सजाती
इतना सुंदर तुम मुस्कुराकर
कहाँ चली गई मेघों के परे!
मुमकिन तुझको ही होता
अंधेरों में भी प्रदीप्त होना
चाँद और तारें को तू प्रेरणा
साथ ही उगते साथ ही डलते
मीठी हवा के फेरों में बैठ
जाती कहाँ? क्या सूरज को बुलाने?
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